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पगली

 



"कैसा लग रहा हूँ?" अमन ने उसके सामने बैठते हुए कहा।

उसने बलिहारी जाऊं वाली नज़रों से देखा और पास मौजूद गीली मिटटी उठा कर उसके गाल पे थोप दी। वह एकदम सकपका गया और वह खिलखिला कर हंस पड़ी।

"हाँ... अब अच्छे लग रहे हो।" उसने हँसते हुए कहा।

और अमन मुंह बना कर रुमाल से मिट्टी पोछने लगा। उसके चेहरे से लगा नहीं कि लुबना की यह हरकत उसे अच्छी लगी हो... वह चेहरा घुमा कर दूसरी तरफ देखने लगा।

"ए बाबू... तनिक इधर देखो न।" लुबना ने उसे छेड़ते हुए कहा था।

"ऐसे ही बोलो।" उसने बिना देखे कहा। उसे पता था कि वह देखेगा तो जरा सी नाराज़गी भी दिखाते न बनेगी जो वह दिखाने की कोशिश कर रहा था।

"अच्छा लो... बताओ कैसी लग रही हूँ मैं।" उसने एक हाथ से अमन का चेहरा अपनी तरफ खींचते हुए कहा।




अमन के देखते ही उसने वही गीली मिट्टी अपने गाल पर मल ली और थोड़ी शरारत से उसे देखने लगी, और अमन की हंसी छूट गयी।

"सचमुच... पगली हो एकदम।" कहते हुए रुमाल से वह उसका चेहरा साफ करने लगा।

"हां, हूँ तो सही... तभी तो अपनी कौम के लठमारों को छोड़ के तुम्हें पसंद कर बैठी।"

"अच्छा तो मतलब मैं भी मुल्ला होता तो तुम मुझे न पसंद करती।"

"क्या पता तब भी कर लेती।" लुबना ने आंख मारते हुए कहा और उस पर चढ़ पड़ी।

"अरे-अरे... सब्र कर यार, देख रहे हैं सब।" वह उसे रोकने की कोशिश करता हुआ बोला था।

लुबना ने बड़ी मासूमियत से आसपास देखा... वे पार्क में जरूर थे लेकिन आसपास के लोग उन्हें देखने लगे हो, ऐसा भी नहीं था।

"कितने फट्टू हो अमन... आजकल तो लड़के अपनी गर्लफ्रेंड को पाते ही चढ़ दौड़ते हैं और एक तुम हो..." उसने कृत्रिम गुस्सा दिखाते हुए उसकी पीठ पर घूंसा मारा था।

"उनकी मंशा रहती होगी कि जल्दी से जो करना हो कर लो, क्या पता कल मिले न मिले।" अमन उसकी आंखें में झांकते हुए शरारत से मुस्कराया था।

"और तुम्हारी मंशा नहीं रहती?"

"न... मुझे तो जिंदगी गुजारनी है न तुम्हारे साथ, फिर किस बात की जल्दी। जो भी है सब अपना ही तो है।"


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"पक्का न... तुम्हें जल्दी नहीं है। फिर कैसे सच्चे हिंदू हो बाबू... रिवर्स लव जिहाद का मौका हाथ से जाने दे रहे हो।"

"भाड़ में जायें लव जिहाद, रिवर्स लव जिहाद वाले... सच्चा झूठा हिंदू न पता मुझे, बस यह पता है कि इंसान हूँ और एक इंसान को चाहता हूँ।"

लुबना ने उसका हाथ अपने हाथ में ले लिया और चूमते हुए अपने गाल से लगा लिया और उसकी हथेली की गर्माहट अपने वजूद में जज़्ब करने लगी।

"लोग प्यार को क्यों नहीं समझते अमन?"

"समझते तो सब हैं लेकिन उनकी नफरत उनकी इंसानियत पर हावी हो जाती है। वे अपनी आस्थाओं के मारे हैं, वे सोशल मीडिया के भ्रामक और नफरत फैलाने वाले प्रचार-प्रसार के मारे हैं। एक तुम्हारी तरफ के लोग हैं जिन्हें लगता है कि पूरी दुनिया को मुसलमान हो जाना चाहिये और एक मेरी तरफ के हैं जिन्हें लगता है कि पूरी दुनिया से मुसलमानों को खत्म हो जाना चाहिये। अब इनकी नफरतों के बीच हम जैसे जाने कितने लोग पिस रहे हैं।"

"क्या यह लोग हमें जीने देंगे?"

"क्या कहा जा सकता है... अब तो सियासत ने भी धर्म का चश्मा पहन लिया है। लोगों को अब इंसान कम दिखाई देते हैं, बल्कि जहाँ भी दिखाई देते हैं— हिंदू और मुसलमान ही दिखाई देते हैं। तुम्हारी तरफ वाले शायद यह सोचें कि मैं रिवर्स लव जिहाद जैसा कुछ कर रहा हूँ और मेरी तरफ वाले शायद यह सोचें कि मुल्ले इस तरह लड़कियों के सहारे हिंदू लड़कों को फंसा कर उन्हें अपने पाले में खींच रहे हैं लेकिन यह तय है कि कोई यह न समझेगा कि दो इंसान एक दूसरे को रूह की गहराइयों से चाह रहे हैं।"


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फिर उनके बीच खामोशी पसर गयी।

"क्या रहा तुम्हारे इंटरव्यू का?" थोड़ी देर बाद उसने चौंकते हुए पूछा।

"समझो बन गया काम।"

"अरे वाह... या अल्लाह तेरा लाख-लाख शुक्र है।" कहते हुए उसकी आँखें डबडबा आईं।

अमन ने दूसरे हाथ से दो चॉकलेट निकाल कर उसके चेहरे के आगे कर दी।

"इस खुशी के मौके पर कुछ मीठा हो जाये।"

दोनों बेंच की पुश्त से टिक कर बैठ गये और लुबना ने उसके कंधे पर सर टिका लिया। दोनों ने चॉकलेट रैपर से निकाल ली थी और बाईट एक दूसरे की चॉकलेट से लेने लगे।

"तुम्हें लगता है अमन कि तुम्हारे घर वाले मुझे अपना पायेंगे।" लुबना ने खोये-खोये स्वर में कहा।




"पता नहीं। वैसे तो नास्तिक हैं सब लेकिन उठना बैठना सियासी लोगों में है तो पता नहीं कैसे रियेक्ट करेंगे।

"कभी-कभी बहुत डर लगता है यह सोच कर कि कहीं वे भी हमारे दुश्मन हो गये तो।"

"वैसे मुझे लगता नहीं... मैं लड़की होता और तुम लड़का, तब तो तय था कि विरोध होता ही होता। फिर तो राजनीतिक लोग जीना दूभर कर देते, लेकिन ऐसे हाल में विरोध शायद न करें जब उन्हें लड़की देनी नहीं, लड़की लानी है।"

"अल्लाह करे... वे हमारी मुहब्बत को समझ लें।"

"पर तुम्हारे घर वाले शायद न समझें... एक तो इस्लाम छोड़ना और फिर हिंदू लड़के से शादी करना। खुदा खैर करे।"

"मुझे पता है कि वे हमारी मुहब्बत को नहीं समझेंगे और मुझसे सारे रिश्ते तोड़ लेंगे।"

"या क्या पता... दिल्ली का असर हो उनपे और एक्सेप्ट भी कर लें।"

"अच्छा अमन... शादी के बाद तुम मुल्ला हो जाओगे या मुझे पंडिताईन बनाओगे?"

"क्या बनना चाहती हो?"

"जो तुमको हो पसंद..." कहते हुए उसने अमन के गाल पर दांत गड़ा दिये।

"अभी तो यही देखो कि यह समाज के ठेकेदार एक होने दें हमें। पता चले कि कहीं इस्लाम खतरे में आ जाये या कहीं हिंदुत्व खतरे में पड़ जाये।"

"वैसे यह तमाशे छोटे शहरों, कस्बों, गाँवों में ही ज्यादा होते हैं। हम दिल्ली में रहते हैं... यहां एक उम्मीद तो रहती है कि शायद लोग धर्म से ऊपर इंसानी रिश्ते को तरजीह दे लें।"

"हां, कर तो सकते हैं उम्मीद, पर राजनीति जो न करा दे। आजकल तो हर तरफ का माहौल खराब ही है।"



"फिर? अगर ऐसे हालात बने तो।"

"मैंने एक आइडिया सोचा है क्योंकि आज के युग में जो मौजूदा हालात हैं, उनमें एक हिंदू लड़के की शादी किसी मुस्लिम लड़की से हो पाना आसान तो नहीं, तुम्हारे घरवाले भले न विरोध करें पर कौम वाले तो जरूर करेंगे।"

"तो... क्या करोगे?"

"जब मैं ठीक से सेटल हो जाऊँगा और हमारी शादी का वक्त आ जायेगा, तब ठीक उसी टाईम तुम घरवापसी कर लेना... यानि मुस्लिम से बाकायदा हिंदू हो जाना और सेम उसी टाईम में मैं कलमा पढ़ लूंगा और मुसलमान हो जाऊँगा... और इसके बाद हम कोर्ट मैरिज कर लेंगे।"

"इससे क्या होगा?" वह कौतुक से उसे देखने लगी।

"विरोध का कारण ही खत्म हो जायेगा। तुम्हारे घर या कौम वालों को एतराज तो हिंदु दामाद से होगा न, पर मुस्लिम दामाद से कैसे एतराज कर पायेंगे भला।"

"और ऐसे ही तुम्हारे घरवाले मुस्लिम बहू से एतराज कर सकते हैं लेकिन हिंदू बहू से कैसे करेंगे... वाह।"

वह भावावेश में उससे लिपट गयी और अमन ने भी उसे अपनी बांहों में भींच लिया।

"अच्छा एक बात बताओ," लुबना उससे अलग होती हुई बोली, "शादी के बाद शायद मैं अपने सभी घरवालों, रिश्तेदारों और समाज से अलग-थलग पड़ जाऊँ... तब हमेशा निभाओगे न मेरा साथ। मेरा कोई नहीं होगा तुम्हारे सिवा।"

"हमेशा... जिंदगी की आखिरी साँस तक।"

वह दोनों हाथों में लुबना का चेहरा थाम कर उसकी आँखों में देखने लगा जिनमें बेपनाह मुहब्बत थी। वह दोनों एक दूसरे की निगाहों में खो गये।

कब तक वह यूँ ही एक दूसरे को देखते रहे, पता ही न चला... फिर सहसा अमन की आंखों में खून भरने लगा और वह एकदम घबरा गयी।

"क्या हुआ... क्या हुआ अमन... अमन।" वह उसे झंझोड़ने लगी।

देखते-देखते अमन का चेहरा खून से सन गया... लुबना ने चीत्कार करते हुए लोगों से मदद की गुहार लगाई, लेकिन किसी के कान पे जूं न रेंगी। वह लगातार अमन को झकझोर रही थी और वह बोलने की कोशिश करके भी बोल नहीं पा रहा था।

फिर वह बेंच से लुढ़क कर जमीन पर गिर गया, लुबना ने उसे संभालने की कोशिश की लेकिन वह उसके संभालने लायक नहीं था। उसका जिस्म धीरे-धीरे खून से लथपथ हो रहा था और बोलने की कोशिश में उसके मुंह से खून आने लगा था।

लुबना पागलों की तरह चीखे जा रही थी।

थोड़ी दूरी पर गुजरता एक आदमी दिलचस्पी से उसे देखने लगा था। फिर उसने पास ही पानी देते पार्क के कर्मचारी से पूछा—

"कौन है यह लड़की और ऐसे क्यों बिहैव कर रही है?"

"पगली है साहब... हम भगाते हैं पर लड़ झगड़ के घुस आती है।" कर्मचारी ने बुरा सा मुंह बनाते हुए कहा।




"पर पार्क में ही क्यों— पार्क से कोई खास लगाव है क्या इसे।"

"हां... पहले हमेशा पार्क में ही मिलती थी न उससे।"

"उससे।" पूछने वाले के माथे पर बल पड़ गये, वह सवालिया निगाहों से कर्मचारी को देखने लगा।

"अरे साहब— मुस्लिम है यह, एक हिंदू लड़के से प्यार करती थी। दोनों अक्सर इधर ही आ कर वक्त गुजारते थे लेकिन जमाने का हाल तो आपको पता ही है, घरवाले कहां बर्दाश्त करते... एक दिन इसके बाप भाई ने लड़के को इसके साथ पकड़ लिया और इसकी आंखों के सामने चाकुओं से गोद डाला। खुद जेल चले गये— घर पे जो माँ बहन बचीं, उन्होंने इसे धक्के दे कर घर से निकाल दिया। सदमे से पागल हो गयी बेचारी... तब से ऐसे ही भटकती रहती है इधर-उधर।"

पूछने वाला अफसोस भरे अंदाज में पलट कर उस पगली को देखने लगा जो अब बेंच पकड़ कर रोने लगी थी।

(मेरी किताब गिद्धभोज से ली हुई एक कहानी)


Written by Ashfaq Ahmad

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