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गर्म गोश्त का शौकीन

 


मोबाइल की बेल ने ऑफिस में बैठे सोमेश की निमग्नता तोड़ दी। उन्होंने उचटती हुई नजर फोन पर डाली— रश्मि का फोन था घर से।

"हां— क्या हुआ?" उन्होंने फोन रिसीव करके कहा।

"भूल तो नहीं गये— आज निशु का जन्मदिन है। जल्दी आना है।"

"हम्म— आता हूं।" कह कर उन्होंने फोन काट दिया।

दिल में एक हूक सी उठ कर रह गई— निशु उनकी जिंदगी में लगी वह अकेली चोट थी जिससे वे आज तक उबर न पाये थे। उनकी विचारों की रौ काम से हट कर अपनी तरफ चली गई।

सोमेश उन लोगों में से थे जिनके बारे में कहा जाता है कि वह मुंह में चांदी सोने का चम्मच लेकर पैदा हुए। एक बड़े व्यवसाई के अकेले बेटे थे... बचपन से ही हर सुख-सुविधा और ऐश मिली और मां-बाप की तरफ से मिली ढील और लाड ने उनकी प्रवृत्ति में वह चीजें भी स्थापित कर दीं, जिन्हें सभ्य समाज में ठीक नहीं माना जाता।

उन्हें बड़े हो कर पिता का व्यवसाय ही संभालना था— कौन सी नौकरी करनी थी, इस सोच ने उनकी पढ़ाई में कोई खास दिलचस्पी नहीं पैदा होने दी और पैसे के साथ आसपास लड़कियों की उपलब्धता ने उन्हें वह बना दिया कि उनके सर्कल में या सर्कल से बाहर उनके लिये एक विशेषण स्थापित हो गया था— गर्म गोश्त का शौकीन।




खुद उन्हें भी नहीं याद था कि उनके वजूद तले कितने जनाना बदन रौंदे जा चुके थे। यह उनके लिये ऐसा शौक था जिसके लिये वे किसी भी हद तक जा सकते थे। उनके कदम संभालने के लिये रश्मि से उनकी शादी कर तो दी गई लेकिन यह कदम नाकाफी साबित हुआ। पांच साल में आगे-पीछे दो बच्चे हुए और इसके बाद उन्होंने अपना ऑपरेशन करवा लिया।

पहला बेटा था गंधार और दूसरी बेटी थी निशु... बेटे की पैदाइश पर खुश थे कि उनका वारिस आ गया, लेकिन बेटी ने उनके विचारों में क्रांतिकारी परिवर्तन ला दिया। पहली बार बेटी का बाप बनने पर उन्हें बेटी की परिभाषा समझ में आई, वरना तो उनके लिये हर जनाना जिस्म बस एक योनि भर ही था। बचपन में घर की बड़ी उम्र की नौकरानी से न परहेज किया था, न बड़े हो कर नौकरानी की बच्ची से... सब उनके लिये योनियां ही थीं।

लेकिन निशु ने उनके सोचने का नजरिया बदला था कल्पना करके भी सिहर जाते थे कि उनकी बेटी भी कभी किसी के लिये ठीक वैसी ही योनि हो सकती है जैसी उनके लिये दूसरी थीं।

पहली बार औरत उनके लिये योनि से ऊपर उठकर एक औरत बनी थी।

लेकिन तभी उन्हें जिंदगी की सबसे बड़ी चोट हुई थी।

एक दिन उनकी निशु गायब हो गई थी और साथ ही गायब हो गई थी वेलम्मा। वेलम्मा का बस फोन आया था कि वह निशु को लेकर जा रही है और अब वह कभी न मिलेगी उन्हें। एक नौकरानी की इतनी हिम्मत— वह गुस्से से पागल हो उठे थे और न सिर्फ दिल्ली की पुलिस बल्कि यूपी, हरियाणा, राजस्थान और पंजाब की पुलिस भी वेलम्मा को पकड़ने और निशु को बरामद करने के पीछे जी जान से लग गई थी लेकिन लाख कोशिश करके भी नाकाम ही रही थी।

वेलम्मा उनके घर की नौकरानी थी जो उनकी चढ़ती जवानी के जोश का शिकार होकर चुप रह गई थी और उम्र में काफी बड़ी होने के बावजूद, उनके लिये घर में ही उपलब्ध आसान शिकार बन के रह गई थी। वह और उसका पति उनके परिवार के अहसानों तले दबे लोग थे, जिनकी निगाहें कभी साहब लोगों के जूतों से ऊपर उठने की हिम्मत भी न कर पाती थीं।

उसका पति इस सिलसिले का प्रतिरोध भले साहब लोगों के सामने न कर पाया हो, मगर अपना मर्द होना न भूल पाया था और वेलम्मा के शोषण का दोष वेलम्मा पर ही डाल कर, उसे छोड़ कर कहीं दुनिया की भीड़ में गुम हो गया था। वेलम्मा न जा सकी थी... एक बेटी की जिम्मेदारी थी उस पर। यहां सहारा था— बाहर नोचने को हजार हाथ मौजूद थे। कहां सहारा तलाश करती... सो इसे ही नियति मान लिया था।


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लेकिन सोमेश बाबू तो जवान होने के साथ नई-नई कलियों के शौकीन होते चले गये थे। वेलम्मा उनके रस भरे जीवन की शुरुआत थी, कोई पड़ाव नहीं। उसके क्वार्टर की तरफ दोबारा उनका ध्यान तब गया था, जब उसकी बेटी सांची इस लायक हो गई थी कि वह उसका शिकार कर सकें। हां, वह डरी-सहमी भी थी... गिड़गिड़ाई भी थी और उसने पैसों का वजन अपने जमीर पर महसूस भी किया था। उन्होंने उसे मुंह बंद रखने की सख्त हिदायत दी थी।

लेकिन अपना मुंह वह तभी तक बंद रख सकी थी जब तक उनकी गंदगी अपने आंचल में समेटते-समेटते वह पेट से भारी न हो गई थी और तब वेलम्मा का आक्रोश फूट पड़ा था... लेकिन थी तो नौकरानी ही। उसे बुरी तरह डरा धमका कर चुप करा दिया गया था और अबॉर्शन के लिये उसे नोटों की एक गड्डी दे दी गई थी।

उनके हिसाब से वेलम्मा या सांची का किस्सा पीछे छूट चुका था। अबॉर्शन के नाम पर वह गांव चली गई थी और फिर तब लौटी थी जब उनकी रश्मि से शादी हो चुकी थी। उसने बताया तो यही था कि सांची का अबॉर्शन भी हो गया था और उसकी शादी भी हो गई थी— सच क्या था वही जाने।

लेकिन आठ साल बाद जब निशु तीन साल की हो चुकी थी, तब वेलम्मा उसे लेकर गायब हो गई थी और तब उन्हें अंदाजा हो सका था कि कुछ भी भूली नहीं थी और शायद रोज ही सुलगती रही थी— बदले की उम्मीद में... और उस दिन मौका मिल गया था उसे।

वह दक्षिण भारत के किसी सुदूर छोटे से गांव की रहने वाली थी, लेकिन महीनों बाद जब वह उसका पता तलाश पाये तो भी कुछ हाथ न आया— क्योंकि वह जगह छोड़े तो उसे जमाना हो चुका था। कुल मिला कर वेलम्मा दुनिया की उसी भीड़ में गुम हो गई थी, जिसमें कभी उसका पति गुम हो गया था।


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रश्मि के लिये यह चोट भले कभी न भरने वाला जख्म साबित हुई हो लेकिन सोमेश का जख्म भर गया था और उन्होंने योनि से औरत समझने लग गये अपने भीतर के नये सोमेश को खुंरच कर फेंक दिया था और वापस उसी सोमेश को जिंदा कर लिया था जिसके लिये हर औरत बस एक योनि थी। भले शहर में लोग उनके नाम के साथ प्रत्यय लगा कर ही याद करते हों— गर्म गोश्त का शौकीन।

रश्मि का दिल रखने के लिये वह निशु के हर जन्मदिन पर शाम को मंदिर जा कर भले उसके नाम पर पूजा कर लेते हों, गरीबों को खाना खिला देते हों, दान-पुण्य कर देते हों और रात को घर में उसका फोटो लगा कर बर्थडे केक काट कर पार्टी मना लेते हों लेकिन इससे उनके आचरण पर तनिक भी प्रभाव न पड़ता था।

निशु को गायब हुए चौदह-पंद्रह साल हो गये थे लेकिन केक हमेशा उसी फोटो के सामने कटता था जो उसके गायब होने के वक्त का था।

तभी फिर फोन बजा तो उनकी तंद्रा टूट गई।

इस बार इस स्क्रीन पर इरफान का नंबर फ्लैश हो रहा था... उनकी सभी इंद्रियां एकदम से सचेत हो गईं। इरफान वह बंदा था जो उनके लिये नई-नई कलियों का प्रबंध करता था।

"हम्म।" उन्हें ज्यादा बोलने की ज़रूरत नहीं पड़ती थी।




"एक फोटो भेज रहा हूं व्हाट्सएप पर। कहीं बाहर की है, दिल्ली में हफ्ता भर के लिये है और हर रात के लिये बुक है। आप चाहें तो आज की बुकिंग कैंसिल कराई जा सकती है। कीमत उसकी पसंद की और परफॉर्मेंस आपकी पसंद की।"

"कोई स्पेशल है क्या?" उनकी दिलचस्पी जाग उठी।

"मुंबई की है— खिलती कली है। नेट पर बोली लगती है उसकी। किसी काम के सिलसिले में दिल्ली आई है तो रातें बुक कर ली हैं।"

"काम?" उनकी आंखों में उलझन के भाव उभरे।

"मॉडलिंग करती है— न्यू सेंसेशन है ऐड वर्ल्ड की। देख तो लीजिये।"

"किसी और रात नहीं चल सकता?"

"मुश्किल है— उसकी कोऑर्डिनेटर से बात हुई थी बाकी रातें उनके लिये बुक्ड हैं जो खुद तोप हैं दिल्ली के। आज वाला कमज़ोर कस्टमर है, तो उसी की बुकिंग की कुर्बानी ली जा सकती है।"

"ठीक है— फोटो भेजो।"

कॉल कट कर के उन्होंने व्हाट्सएप खोला तो अगले कुछ सेकंड में चार फोटो आ गये। फोटो मॉडलिंग स्टाइल में और कामोत्तेजक थे... लड़की वाकई बड़ी हॉट थी। उनकी भूख भड़क उठी... उन्होंने 'डन' कर दिया।

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आज निशु के बर्थडे के चक्कर में सोमेश को फुर्सत मिल पानी आसान नहीं थी और इसके लिये उनका रश्मि को दिया यह बहाना भी कोई खास प्रभावी न रहा था कि उनकी एक अर्जेंट बिजनेस मीटिंग थी पानीपत में और उन्हें वक्त रहते निकलना था। रश्मि उनका स्वभाव खूब समझती थी और इस तरह की रात-रात होने वाली मीटिंग्स का औचित्य भी... वह वितृष्णा से भर उठी थी लेकिन कुछ कह न सकी थी।

बहराल मंदिर में पूजा से ले कर दान पुण्य और घर की पार्टी तक सभी कुछ अनमने ढंग से जल्दी-जल्दी निपटाने की कोशिश की और आखिर दस बजे उन्होंने रश्मि को पार्टी मनाते छोड़ा और बाहर की राह ली।

ऐसे मौज मेले के लिये उनके पास छतरपुर में एक आशियाना था। ज्यादातर मौकों पर वहीं महफिल सजती थी। वे जब वहां पहुंचे तो सब फिट था— बंगले की केयरटेकिंग जिस बलजीत नाम के युवक के पास थी, उसने सारी तैयारी कर दी थी और वह खास मेहमान उनकी आमद से पहले ही उनके विशेष कक्ष में पहुंचा दी गई थी।

वे उस कक्ष में पहुंचे तो उस बला से उनका सामना हुआ और उनकी धड़कने अस्त-व्यस्त हो गईं।

शायद उनके आने से पहले ही वह नहा धो कर तैयार हुई थी। उन्होंने उसके बदन की महक अपने फेफड़ों में भरते हुए ठीक उस नज़र से लड़की का अवलोकन किया जैसे कोई कसाई खरीदते वक्त बकरे का करता है।

उम्र में सत्रह-अट्ठारह के करीब लगती थी, श्वेत रंग, निकलता कद, सुराहीदार गर्दन, गोल पुष्ट कंधे, उभरते हुए अवयव, पतली कमर, बाहर निकले नितंब... सब कुछ सधा सा, एक परफेक्ट खांचे में फिट— और चेहरा मासूमियत और सेक्स अपील का यूनीक मिश्रण। एन उनकी पसंद के मुताबिक— एन उनकी ख्वाहिश के मुताबिक। उसे देखते हुए उन्होंने अपने अंग-अंग में उत्तेजना अनुभव की।

"नाम क्या है तुम्हारा?" उन्होंने मुस्कुराते हुए पूछा।

"लाजवंती!" कहते हुए वह हंस पड़ी।

"हम्म! हंसी किस लिये?"

"क्योंकि बहुत कम खरीदार मिलते हैं जिन्हें नाम में दिलचस्पी हो। वैसे भी जहां मैं हूं वहां नाम क्या मायने रखता है— पहचान मायने रखती है और मेरी पहचान लाजवंती है।"

"मतलब रियल में कुछ और है— धंधे में लाजवंती।"

इस बार वो कुछ न बोली— बस मुस्कुरा कर रह गई।

"ड्रिंक्स बना लेती हो?"

"धंधे में उतरने से पहले ही सीख लिया था साहब। कहिये, क्या पियेंगे आप?"

"वह उधर सब सामान मौजूद है— बना लो जो भी पसंद हो और खुद पीती हो तो अपने लिये भी।"

उसने मुस्कुराते हुए वह कोना संभाल लिया जहां बढ़िया से बढ़िया शराब मौजूद थी और ऐसे खास मौकों के लिये केयरटेकर की तरफ से यह सारी तैयारी पहले ही हो जाती थी।

लड़की ने दो पैग बनाये।

शराब चुसकते हुए उन्होंने उसे अपनी गोद में बिठा लिया और इस अंदाज में उसके शरीर पर हाथ फिराने लगे जैसे कोई दक्ष संगीतकार किसी वाद्ययंत्र पर अपने सधे हुए हाथ चलाता है।

हां— यकीनन वह एक खूबसूरत ग़ज़ल थी जिसके हर मिसरे को उन्होंने सुन डाला, खुद में जज़्ब कर डाला। रात भर उसके आगोश में ऐसे गर्क हुए कि दुनिया भुला बैठे। नर्मअंदाम गोश्त के इस संसर्ग ने उन्हें यकीनन वही लज्जत बक्शी थी जिसके वह हमेशा से ख्वाहा थे।

इस ग़ज़ल को सुनते, जज्ब करते कब नींद के आगोश में चले गये, उन्हें पता ही न चला और सुबह तब नींद टूटी जब बाहर कोई दरवाजा नॉक कर रहा था।

पहले तो नींद से बोझिल दिमाग ने कुछ भी समझने से इनकार कर दिया लेकिन फिर समझ में आया तो उनके क्रोध का कोई ठिकाना न रहा। किसकी हिम्मत हो गई कि उन्हें इस तरह जगाये?

उन्होंने पास लेटी लड़की की तरफ देखा— दरवाजे के भड़भड़ाये जाने से उसकी नींद भी उचाट हो गई थी और वह चेहरा उठाये कौतहूल से उन्हें देख रही थी।

कपड़े तो दोनों के ही जिस्म पर नहीं थे... उन्होंने उठकर पहले कपड़े पहने और फिर दरवाजा खोला। सामने कोई वृद्धा खड़ी थी जो उन्हें हटाती अंदर आ गई।

"कौन हो तुम?" वहा दहाड़ उठे।

"गौर से तो देखिये— पूछने की जरूरत ही न रहेगी।" वृद्धा ने बड़े इत्मीनान से कुर्सी पर बैठते हुए कहा।

शक्ल से तो न पहचान पाते लेकिन आवाज और बोलने के ढंग ने स्मृतियों के ढेर में हलचल मचाई और उनकी आंखें फट पड़ीं— वह वेलम्मा थी।

"मां— तुम इस तरह यहां क्यों आई हो?" जबकि लड़की किंचित नाराजगी से वृद्धा से संबोधित होते हुए उठ बैठी थी— सीने को चादर से ढंके।

मां— उनके दिमाग को दूसरा झटका लगा और वह हकबकाये से दोनों को देखने लगे। फिर वेलम्मा के हंसने पर उनकी जड़ता टूटी और एकदम से उन्हें याद आया कि वेलम्मा ने उन्हें क्या चोट पहुंचाई थी। उनकी भृकुटियां चढ़ गईं, मुट्ठियाँ भिंच गईं, नथुने फूलने-पिचकने लगे और क्रोध से उफनते हुए उन्होंने लपक कर वेलम्मा का गला दबोच लिया।

"मार डालिये— मार डालिये। मेरे जीने का लक्ष्य अब पूरा हुआ... और जीने की कोई चाह नहीं।" वह फंसे-फंसे कंठ से अस्फुट से शब्दों के साथ बोली।

"मेरी बेटी कहां है— कहां है मेरी बेटी?" वह दांत पीसते हुए गुर्राये।

"उससे पहले मेरी बेटी का हाल तो पूछ लीजिये।" सहसा वेलम्मा के चेहरे के भाव बदल गये और उसने उनके हाथ अपने गले से झटक दिये।

वह सुर्ख आंखों से उसे घूरे जा रहे थे।

"आपके घर से निकल कर दिल्ली में ही अबॉर्शन करा दिया था मैंने और गांव चली गई थी उसे ले कर। वहां नहीं जहां मेरा घर था बल्कि वहां— जहां मेरा ननिहाल था। वही सांची की शादी करा दी थी एक मुंबई में काम करने वाले टैक्सी ड्राइवर से, लेकिन सभी मर्द इतने अनाड़ी नहीं होते कि कुंवारी और लगातार भोगी जाने वाली औरत का फर्क न समझ सकें। उसने सांची को मार-मार कर सारा सच कबुलवा लिया और उसे फिर किसी कोठे पर बेच दिया। मैं अकेली औरत उसका कुछ न बिगाड़ सकी और न ही अपनी बेटी को कभी ढूंढ पाई। खप गई वह जिस्म के बाजार में। बतायेगा कोई कि उसे किस बात की सजा मिली थी?"

सोमेश के मुंह से बोल न फूटा।




"तेरी वजह से मेरा पति छोड़ गया— तेरी वजह से मेरी ज़िंदगी खराब हो गई। तेरी वजह से मेरी बेटी की ज़िंदगी बर्बाद हो गई सेठ... कभी अहसास किया तूने कि जब मैं तेरे घर काम पर वापस लौटी थी तो किस प्रतिशोध की आग में झुलस रही थी। हां, मुझे उस दिन पहली बार तसल्ली हुई थी जिस दिन मैं तुझे बेटी का दर्द देने में कामयाब हुई... और आज मेरे जीवन का मकसद खत्म हुआ जब मैं तुझे यह बताऊंगी कि मैंने तेरी बेटी के साथ क्या किया। आज मिलने वाली संतुष्टि ही मेरे जीवन का अंतिम लक्ष्य थी— बस अब और कोई मोह नहीं।"

"क्या किया मेरी बेटी के साथ?" उनकी आवाज भर्रा गई।

"अपनी बेटी बनाकर पाला था उसे— कभी दस-दस रुपये में खुद को बेचा, कभी मजदूरी की, तो कभी चोरी भी की लेकिन उसे सब मुसीबतों से बचा कर रखा, मगर हर कदम पर यह यकीन दिलाने के साथ कि तेरी मां एक वैश्या है और बड़े हो कर तुझे भी वैसा ही बनना है... लेकिन अपनी मां की तरह सस्ती वेश्या नहीं, बल्कि टॉप की वेश्या! ऐसी टॉप की वेश्या कि तेरे जैसा हर अमीर कुत्ता उसकी हर अदा पर लार टपकाये। वही बनाया उसे... और बड़ा रसिया है न तू जनाने बदन का। शहर में गर्म गोश्त के शौकीन के नाम से जाना जाता है... तो तुझ तक पहुंचाने के लिये ही खास दिल्ली आई थी मैं।"

सोमेश की धड़कनें रुक-सी गईं— वह फटे-फटे अविश्वास पूर्व नेत्रों से कभी वेलम्मा को देखते तो कभी उस लड़की को, जो सफेद फक् चेहरा लिये बेयकीनी से वेलम्मा को देख रही थी।

"मिल ले गरम गोश्त के शौकीन सेठ... अपनी बेटी से! जिस खिलती कली को तूने रात भर अपने बिस्तर में रौंदा है, वह कोई और नहीं बल्कि तेरी अपनी ही बेटी है।" वेलम्मा का एक-एक शब्द उनके दिल दिमाग पर बम बन कर फट रहा था।

ऐसा लगा जैसे उनके जिस्म से जान ही निकल गई हो। वह लड़खड़ा कर पीछे हटे और दीवार से टिक कर भरभराते हुए फर्श पर आ गये। बेटी को देखते उनकी आंखें लगभग बेजान हो चुकी थीं।

वेलम्मा कुर्सी से उठ खड़ी हुई थी।

"तेरी बेटी तेरे हवाले करके जा रही हूँ सेठ— तेरी एक बात तेरे मुंह पर वापस थूक कर, जो कभी तूने मेरे मुंह पर थूकी थी। बेटी है तो क्या— बेटी भी तो एक योनि ही होती है।"

 

(मेरी किताब गिद्धभोज से ली हुई एक कहानी)


Written by Ashfaq Ahmad


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