जामुन की छाँव
राघव को अपने घर के आंगन में लगे जामुन के
पेड़ से ठीक वैसा ही लगाव था जैसा किसी इंसान को अपनी औलाद से होता है। वह कोई
पढ़ा लिखा तो न था कि ग्लोबल वार्मिंग के खतरों को देखते हुए एकाएक पर्यावरण
प्रेमी हो गया हो, बल्कि यह प्यार तो उसके
जींस में था।
अपने पर्यावरण
से प्यार, अपने आसपास की हरियाली से
प्यार, इस प्रकृति से प्यार— इस प्यार के लिये उसे किसी
स्कूल या मास्टर की ज़रूरत महसूस ही न हुई थी। वह तो उस पीढ़ियों से चली आई
संस्कृति का पैरोकार था जो प्रकृति और अपने प्राकृतिक संसाधनों के प्रति हमेशा
संवेदनशील रही है। यह अलग बात है कि उसकी अगली पीढ़ी तक यह जींस नहीं पहुंचे थे और
वह उसी नई और आधुनिक पीढ़ी के झंडाबरदार थे जो प्रकृति के प्रति अंतिम हद तक क्रूर
थी।
शाम ढल रही थी—
दिन भर की तपन और उमस से थोड़ी राहत पाने का वक्त था। आसमान पर उड़ते पक्षियों के
झुंड अब वापस अपने बसेरों की ओर कूच कर रहे थे। खुद उसके आंगन में खड़ा जामुन का
विशाल पेड़ भी जाने कितने पक्षियों का घर था जो अब शोर मचाते पेड़ पर जमा हो रहे
थे।
उसी पेड़ के
नीचे बाध की चारपाई डाले राघव लेटा था।
ऊपरी धड़ पर
सूती बनियान, नीचे धोती, सर पर बंधा गमछा, खालिस देशी किसान। उसकी उंगलियों
में बीड़ी फंसी थी और वह उसके सुट्टे लगा रहा था। कुछ सोच रहा था कि बाहर से आई
हार्न की आवाज ने उसका ध्यान भंग कर दिया।
"तुम्हें पूछने दोपहर
में आये थे— वही होंगे।" अंदर से सुमिति की आवाज आई।
वह उठ बैठा।
बीड़ी वहीं फेंक
कर पैर से मसली और कच्ची जमीन पार करते बाहर आ गया। दरवाजे पर ही काले शीशों वाली
सफारी खड़ी थी। उसे बाहर आता देख कर सेठ जी भी दरवाजा खोलकर नीचे उतर आये।
उसने हाथ जोड़कर
नमस्ते की।
"आओ राघव— कैसे हो?"
सेठ जी ने पास आते हुए कहा
"ठीक हूं सेठ जी।"
"मैं दोपहर में भी आया
था लेकिन तुम कहीं गये हुए थे।"
"हां जी— बताया औरत
ने।"
"तो— क्या सोचा तुमने?
देखो हमने तुम्हारे दोनों बेटों से बात की और दोनों ही इस सौदे के
लिये खुश हैं। यह तुम्हारे आसपास की सारी जमीन बिक चुकी है... अब यहां अकेला इस
तरह का घर कहां अच्छा लगेगा, और फिर अब तुम दोनों मियां बीवी
बूढ़े हो चुके हो। देखभाल की भी जरूरत है तुम लोगों को— कहां तक यहां अकेले पड़े
रहोगे? बेटों के पास रहो इस उम्र में और अब तीर्थ-शीर्थ करो।
इस उम्र में कहां खेती किसानी में बैल की तरह जुते हो।"
● कहानी उस मिशन की, जो कश्मीर भेजे गये एक मास्टरमाइंड को ट्रैक करने और उसे ख़त्म करने का था
"जी सेठ जी— लेकिन मोह
नहीं छूटता इस जगह का। यहीं पैदा हुआ और यहीं जवान होकर बूढ़ा हो गया। छोड़ते बनता
भी तो नहीं सेठ जी।"
"मैं समझ सकता हूं
राघव— अपनी मिट्टी, अपने घर से प्यार होता ही है। फिर भी
दुनिया भी जिम्मेदारियां तो बहुत निभा लीं, अब थोड़ा
धर्म-कर्म करोगे कि नहीं? यह जीवन तो हो गया— अब अगले जन्म
के लिये भी कुछ कर लो। जिम्मेदारियों से मुक्ति पाओ और निकल जाओ चार धाम यात्रा
पर— सारा अरेंजमेंट मैं कर दूंगा और दोनों बेटे तुम्हारा ख्याल रखेंगे, इस बात का ध्यान मैं खुद रखूंगा।"
"जी सेठ जी— आज ही बोल
देता हूं बच्चों को आने को। फिर सब से विचार-विमर्श करके बताता हूं।"
"ठीक है— जैसा ठीक
समझो, लेकिन ध्यान रखना कि किसी और से बात न करने लग जाना।
हमसे बढ़िया डील तुम्हें कोई नहीं दे सकता।"
"जी।" उसने हाथ जोड़ दिये।
सेठ जी कंधा
थपथपा कर गाड़ी में बैठे और चले गये। वह तब तक वहीं खड़ा धूल उड़ाती गाड़ी को
देखता रहा, जब तक देखा जा सकता था।
कभी यह शहर से
बीस किलोमीटर दूर बसा एक ग्रामीण इलाका था। उस वक्त तो जंगल और बाग़ थे जब वह छोटा
था, लेकिन जवान होते-होते
काफी जंगल और बाग़ साफ हो गये थे ताकि खेती हो सके। वह भी गांव का एक संपन्न किसान
ही था— पिता की अकेली संतान था, तो किसी चीज में कोई बंटवारा
भी न था। हां, लाख पिता के चाहने पर भी वह पांचवीं जमात से
आगे न पढ़ सका था लेकिन जरूरत भर ज्ञान और समझ उसमें दोनों थी।
उसके
देखते-देखते नज़दीक का शहर फैलते-फैलते उनके गांव के नज़दीक तक पहुंच चुका था और
अब तो बाकायदा उस अंचल को भी निगल लेने पर उतारू था। कभी जो शहर से लगा जंगल और
बागों से भरी जमीन हुआ करती थी, वह पहले खेतों में परिवर्तित हुई थी और फिर बड़े-बड़े बिल्डरों की नजर
होकर कंक्रीट के जंगलों में तब्दील होती चली गई थी। अब तो आगे का भी, कभी पेड़ों से भरपूर रहा इलाका अब खेतों की शक्ल अख्तियार करने लगा था।
इसमें लालच भी
था, ज्यादातर उस बेल्ट में
बाग़ हुआ करते थे लेकिन बदलते आर्थिक तंत्र में ज्यादा की डिमांड देख साल में एक
बार फसल के रूप में 'अर्थ' दे सकने
वाले बागों को हाशिये पर धकेल दिया गया था और उनके मुकाबले साल में दो-तीन फसलें
दे सकने वाली खेती लाभ का सौदा लगने लगी थी, तो ऐसे में
बाग़ों को बचाता कौन? खुद राघव को भले यह लालच प्रकृति पर
कुठाराघात लगता था लेकिन वह कम से कम प्रतिकार की स्थिति में तो नहीं था, खुद उसके पिता ने भी तो यही किया था।
अब आबादी इस तरह
बढ़ेगी तो लोगों के रहने के लिये ज़मीन तो चाहिये ही और ज़मीन आयेगी कहां से? तो बाग़ों और खेतों को कुर्बानी तो देनी ही
पड़ेगी।
हां, अपने मन से वह विरोध दूर न कर सका था।
जब जवान था तो
अक्सर बीज लेने, फसल बेचने या और किसी काम
से शहर जाता तो कितना भला लगता था। तब शहर भी कम आबादी, चौड़ी
सड़कों, खुले बड़े मकानों वाला हुआ करता था, जहां हर कदम पर हरियाली आंखों के साथ मन को भी सुकून देती थी।
लेकिन
देखते-देखते शहर ने अपना मिजाज़ बदल लिया था।
आबादी बेतहाशा
बढ़ती चली गई थी जिसे संभालने को घर छोटे, पक्के और बहुमंजिला होते चले गये थे। सड़क के रास्ते अतिक्रमण के शिकार
होकर संकुचित होते चले गये थे। खाली जगह, मैदान, सब कंक्रीट के जंगल बनते चले गये थे। अब पेड़ पौधों के लिये जगह कहां बची
थी— वह भी छोटे होकर कुछ अमीरों के लॉन या गमलों तक सीमित होकर रह गये थे।
राघव और सुमिति
के तीन बच्चे हुए थे— एक बेटी शालिनी और दो बेटे रमेश और मुकेश। खुद न पढ़ सका था
तो पढ़ाई की अहमियत जानता था, इसलिये तीनों बच्चों को जहां तक वे चाहे, उसने
पढ़ाया था और वाकई समाज के हिसाब से उसके बच्चे लायक साबित हुए थे। ग्रेजुएशन करके
बेटी की एक अच्छे घर में शादी कर दी थी और बेटों ने पढ़ लिख कर शहर में ही नौकरी
हासिल कर ली थी, लेकिन वह नये जमाने के और नई सोच के थे।
न उन्हें गांव
का माहौल सूट करता था और न लोग— गांव की भाषा में कहें तो शहरुवा बनते देर न लगी
थी। वह वहीं बस गये थे। हालांकि मॉडर्न होने के बावजूद इतनी गनीमत थी कि उन्हें
पिछड़े हुए मां-बाप शर्मिंदगी का कारण नहीं लगते थे और दोनों ही चाहते थे कि वे
बूढ़ा-बूढ़ी उनके साथ ही रहें।
दिक्कत राघव को
थी उनके साथ सामंजस्य बिठाने में।
वह शहर जाता था
दोनों के पास... दो दिन रुकता और उसका जी घबराने लगता था। जहां तक देखता— सड़कें, घर-मकान, बिल्डिंगें
दिखतीं, जिस हरे भरे शहर को देखने की उसकी आदत रही थी,
वह तो कभी का खत्म हो चुका था। अब तो पक्के मकानों, बिल्डिंगों वाला कंक्रीट का जंगल था और कीड़े मकोड़ों की तरह बिजबिजाते
लोग। दो दिन में उसका दम घुटने लगता थ।
फिर बेटों की
सुविधाभोगी प्रवृत्ति उसे और चिढ़ा देती थी।
वे तो एक बाल्टी
पानी की कीमत जानते थे जो कुएं से खींचते थे या हैंडपंप से ओंटते थे और यहां खुल
के पानी की बर्बादी होती थी। बस मोटर चलाया और पानी ही पानी... जरूरत एक जग की हो
तो चार बाल्टी बहाया जाये। रोज सवेरे गाड़ी धोई जाये। कहां वे खुले में लेट कर
सोने वाले और कहां शहर के वे बंद कमरे, जिन्हें ठंडा करने के लिये दिन-रात एयर कंडीशनर फूंके जायें— जो अंदर तो
ठंडा करें मगर बाहर गर्म कर दें। कोई मतलब ही नहीं किसी को कि हम किस तरह अपनी हवा
और पानी को बर्बाद कर रहे हैं। कोई फिक्र ही नहीं... और यह हाल अकेले उसके बेटों
का नहीं था, वहां तो लगभग सभी ऐसे ही थे— जो प्रकृति को दे
कुछ नहीं रहे थे बस वसूल ही वसूल रहे थे।
और यही वजह थी
कि वह जाता और अगले ही दिन वापस हो जाता।
बेटों के घर बस
गये। बहुएं भी ठीक-ठाक मिलीं। मन से कैसी भी हों, लेकिन बाहरी तौर पर तो ठीक ही बर्ताव करती थीं। चार पोते-पोती हो गये और
अब तो वह भी दस से चौदह साल के हो गये थे।
इतने दिन तो भाग
लिया था वह शहर से लेकिन अब क्या? सेठ जी का कहना भी सही था कि बुढ़ापे में अब कुछ धर्म-कर्म कर लेना
चाहिये। यह जीवन तो ठीक-ठाक गुजर गया— अगले जीवन के लिये भी क्यों न कुछ प्रबंध कर
लिया जाये। आखिर सुमिति की भी तो कब से इच्छा थी कि वे चार धाम यात्रा करें,
वैष्णो देवी जायें, अमरनाथ बाबा के दर्शन को
जायें... अब और करना भी क्या है।
शहर से दूर बसा
यह इलाका कभी माटी मोल था... लेकिन शहर के बढ़ते आकार ने इसे अपनी बांहों में
समेटना शुरू कर दिया था तो जमीन सोना हो गई थी। अच्छे दाम मिलने लगे तो ज्यादातर
लोग जमीनें बेच बेचकर वहां से हटने लगे थे और तय था कि दो-चार साल में यहां भी
बड़ी-बड़ी बिल्डिंगें ही नजर आयेंगी। उसका घर भी किसी बिल्डिंग की पनाह में गुम हो
जायेगा। वहां से चार कोस दूर उसके खेत भी मकानों बंगलों से कवर हो जायेंगे।
रात उसने सुमिति
को सारी बातें बताईं। उसकी राय पूछी, वह भी यही चाहती थी जो सेठ जी ने कहा। सेठ जी बड़े बिल्डर थे, जो कहते थे वह जरूर करेंगे। शायद कहते वक्त नारी सुलभ आकांक्षा भी जरूर मन
में रही होगी कि आराम करने की उम्र में भी वह काम कर रही है। कम से कम इसी बहाने
छुटकारा तो मिले।
अगले दिन तीनों बेटे बेटी भी आ गये— सबके बीच बात रखी गई।
बेटी की खुशी तो
मां बाप के साथ ही थी... बाकी बेटे तो कब से यही चाहते थे, तो उनकी खुशी का ठिकाना न रहा। ज़मीन की
कीमत वे जानते थे और वही काफी थी उन्हें खुश करने के लिये, जो
अंत पंत आनी तो उन्हीं के हाथ थी।
तय यह हुआ कि
सेठजी को हां कर दी जाये और फिर सभी कागजी कार्यवाही पूरी करके वे दोनों
बूढ़ा-बुढ़िया यात्रा पर निकल जायें। अब उम्र के अंतिम पहर में धार्मिक यात्रायें
और धर्म-कर्म ही उनका लक्ष्य था। शाम तक साथ रहकर फिर सभी चले गये।
अगले दिन से
राघव ने अपनी तैयारियां शुरू कर दीं। आखिर एक पूरे जीवन को समेटना था— क्या पता अब
वापस यहां आना, लोगों से मिलना-मिलाना
नसीब हो न हो। तो क्यों न सब से मिल मिला लिया जाये— जिसका लेन-देन हो तो साफ कर
लिया जाये। जिससे मनमुटाव रहा हो, दूर कर लिया जाये। खेतों
की देखभाल करने वाले हरिया को फैसले से सूचित कर दिया जाये और उसका हिसाब-किताब कर
दिया जाये।
बस इसी में
तीन-चार दिन गुजर गये।
और लगभग सब निपट
ही गया— आज शुक्रवार था और कल सेठ जी के साथ डील होनी थी। परसों से वे शहर शिफ्ट
हो जायेंगे।
एक चीज़ रह गई
थी और वही करने वह सुबह ही निकल पड़ा था। दो कोस दूर स्थित मजरे में ननकू रहता था
जो बंटाई पर खेती करता था। कभी फसल खराब हो जाने पर उसने पांच हजार रुपये उससे
लिये थे, जो आज तक न चुका पाया था।
राघव उसकी स्थिति से वाकिफ था और उसे अंदाजा था कि ननकू कभी चुका भी न पायेगा। तो
उसने तय कर लिया था कि वह ननकू से मिल कर अपना कर्जा उसे माफ कर देगा, ताकि न उसके दिल पर कोई बोझ रहे और न ननकू के दिल पर। बस यही लेनदेन बाकी
रह गया था उसका।
राघव को लगा था
कि सुबह ही इस काम को निपटा कर वह दस बजे तक वापस आ जायेगा लेकिन उसके पहुंचने तक
ननकू कहीं निकल चुका था, जिससे उसकी प्रतीक्षा में
राघव को रुकना पड़ गया था और ननकू के वापस आते-आते ग्यारह बज गये थे।
सामने उसे देख
ननकू जाहिर है कि शर्मिंदा हो गया था, लेकिन इससे पहले कि वह अपनी व्यथा सुनाता— राघव ने कर्ज माफी का अपना
फैसला सुना दिया था। पहले तो ननकू को यकीन ही नहीं हुआ फिर वह रोते हुए राघव के
पैरों पर गिर गया था और राघव ने उसे उठा कर सीने से लगा लिया था— उसे अच्छा लगा
था।
लेकिन इस देरी
का परिणाम यह हुआ था कि उसकी वापसी अपेक्षित समय में न हो सकी थी और वापस
लौटते-लौटते उसे दोपहर हो गई थी
कौन सा वहां कोई
साधन रखा था कि वापसी उसके जरिये हो सकती। फिर उस गांव का रास्ता भी कितना दुश्वार
गुजार था कि ऐसे लोग भी रास्ते में मिलने की उम्मीद नहीं कि शहरी भाषा में कहें तो
उनसे लिफ्ट ली जा सकती और फिर राघव की भी हमेशा की पैदल चलने की ही आदत रही थी।
लेकिन मौसम मारे
दे रहा था।
जून का अंत समय
था— आसमान हद्दे नजर तक साफ था। कहीं बदली का एक टुकड़ा भी नजर न आता था। सूरज
बिल्कुल सर पर आ कर जैसे सीधी आग बरसा रहा था। हवा भी एकदम थमी हुई थी— दूर-दूर तक
फैली सूखी भूरी जमीन आग छोड़ रही थी। हरियाली का नामोनिशान न था— इधर ज्यादातर खेत
अब बारिश में धान बुवाई का इंतजार कर रहे थे। जहां किसी दौर में जगह-जगह पेड़ नजर
आते थे, रास्ते घने पेड़ों की
छांव में सुरक्षित रहते थे— वहीं अब दूर-दराज में इक्का-दुक्का पेड़ या
लिप्टिस-पापुलर की मीनारें नजर आती थीं। जो रास्ता पेड़ों से भरा रहता था, वहां अब दूर-दूर इक्का-दुक्का बेल, शीशम, बेर, चिलबिल के सूखे पेड़ नजर आते थे जो ठीक से साया
देने को भी पर्याप्त न थे।
दूर तक आग
बरसाती, चमकती धूप... आंच छोड़ती
सुलगती धरती और सायों से महरूम राह।
शरीर पसीने से
तरबतर हो गया था उसका... उम्र भी ढलान पर थी तो उतनी ताकत भी न बची थी। हर सौ-दो
सौ मीटर पर वह रुक जाता और हांफने लगता। बड़ी शिद्दत से उसे किसी ठंडे साये की
जरूरत महसूस हो रही थी, जो अब नाम का ही
इक्का-दुक्का बचा था। धूप इतनी तेज थी कि शरीर की संपर्क में आने वाली खाल भी
झुलसाये दे रही थी— प्यास से गला अलग खुश्क हो रहा था।
हां, कुछ खेतों की मेढ़ों पर बनी लिपटिस की
पंक्तियां जरूर थोड़ा बहुत साया दे रही थीं, लेकिन इस वक्त
वह इसलिये भी पर्याप्त नहीं था क्योंकि सूरज ठीक सर पर था।
बहरहाल, जैसे-तैसे गांव तक पहुंचा तो जान में जान
आई।
गांव के आसपास
भी वैसी ही छांव रहित चटियल भूमि थी और शहर की दिशा में दूर निर्माणाधीन इमारतों
के धुंधले ढांचे दिख रहे थे। कभी गांव में कई बड़े पेड़ हुआ करते थे लेकिन वे
विकास की भेंट चढ़ गये थे। अब जो चार-छः पेड़ लोगों के घरों के आंगन में दिखाई भी
देते थे, वह छोटे आकार के बेर,
अमरूद और शहतूत आदि के थे। पूरे इलाके में अकेला उस के आंगन में
खड़ा वह सौ साल पुराना जामुन का पेड़ ही था, जो जितना खुद
उसके घर को कवर किये था— उससे ज्यादा बाहर कवर किये था। उसे देखते राघव को पहली
बार उसके 'कद' का एहसास हुआ।
पसीने से तरबतर
जब वह घर के पास पहुंचा तो देखा कि छांव की तलाश में कई पास के लोग वहीं खटिया
डाले जमे थे। कई बकरियां भी वही खड़ी थीं— शायद उन्हें भी छांव की अहमियत पता थी।
उन्हीं के साथ कुछ मुर्गे-मुर्गी भी वहीं चर रहे थे।
यह कोई नया
अद्भुत नजारा नहीं था, बल्कि गर्मियों में रोज
की आम बात थी— जिसका हमेशा वह खुद भी हिस्सा होता था।
हां, लेकिन आज उसके देखने का नजरिया नया था— आज
वह किसी साये की तलाश में मीलों चल कर वहां पहुंचा था। आज सूरज के ताप से उस पेड़
की शरण पाने से पूर्व वह पसीने से बुरी तरह लथपथ था और बड़ी हैरानी से पहली बार आज
वह यह देख पा रहा था कि उसके आसपास मौजूद दुनिया कितनी बदल चुकी है और उसके आंगन
में खड़ा आम सा जामुन का पेड़ अचानक कितना कीमती हो गया है।
क्या इस छांव की
कोई कीमत हो सकती थी? कल को वह सब छोड़ कर चल
देगा और उस पेड़ की लाश गिरा कर जमीन समतल कर दी जायेगी... फिर इसकी बुनियाद पर
सीमेंट कंक्रीट के एक बेजान ढांचे का निर्माण होगा, जिसमें
इंसानी मशीनें रहा करेंगी— जो अपने-अपने तौर पर, अपने-अपने
मंचों पर शोर मचा कर हरियाली की अहमियत बतायेंगी, पेड़ों को
बेशकीमती बतायेंगी... बिना यह सोचे समझे कि खुद उनका वजूद ऐसी ही किसी हरियाली की
कब्रगाह पर बैठा सांस ले रहा है।
वह घर के अंदर
आया तो अजीब विचारों के झंझावात में उलझा हुआ था।
उसे अपना पेड़
कुर्बानी के जानवर जैसा लगा, जिसे कल कत्ल होना हो। वह
उसे अपनी ओर शिकायत से देखता लगा— जैसे कह रहा हो कि क्या तुम मेरी लाश पर अपना
लोक-परलोक सुधारोगे? पेड़ की एक-एक शाख, एक-एक पत्ता उसे किसी जानदार की तरह शिकायत करता लगा। उसकी आत्मा उसे
धिक्कारने लगी।
अचानक उसका
निश्चय डगमगाने लगा... सारा सोचा, तय किया, तूफ़ान में फंसी कश्ती की तरह डोलने लगा।
वह अपनी आत्मा के आगे कमजोर पड़ने लगा। उसके लिये यह पेड़ लकड़ी का कोई बेजान ठुंठ
नहीं था, बल्कि सांस लेने और देने वाला जिंदा वजूद था। उसके
कत्ल होने का इंतजाम करना उसकी गैरत को गवारा न हो रहा था।
और फिर वह हार
गया।
लपक कर उस
बेजुबान से पेड़ से ऐसे लिपट गया जैसे वह कोई इंसान हो, जिसे वह अपनी बाहों में समेट लेगा और
ज़ार-ज़ार रोने लगा। जीवन में बहुत कम ही रोया था लेकिन आज रो रहा था और उसके
आंसुओं में उसके इरादे बहे जा रहे थे।
भीतर कमरे के
दरवाजे पर खड़ी सुमिति हैरानी से मुंह खोले उसे देख रही थी।
(मेरी किताब गिद्धभोज से ली हुई एक कहानी)








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