सुर्खाब
बाहर बेहद सुहाना मौसम था... आकाश पर काले
बादलों का जमावड़ा बना हुआ था और शोख हवाओं के साथ झूम-झूम कर वे बरस रहे थे। उसका
नाम क्या सोचकर घर वालों ने सुर्खाब रखा था, यह वह आज तक न समझ पाई थी। ऐसी हूर परी तो वो कभी न थी... कभी-कभी अपने
नाम से भी उसे अजनबियत महसूस होती थी।
वह खामोशी से
खिड़की से सटी खड़ी बाहर होती बारिश देख रही थी। बाहर सड़क के पार खड़े हवा के साथ
झूमते-भीगते अकेले खड़े पेड़ को देख रही थी— और समझने की कोशिश कर रही थी कि वह
पुलकित होकर नृत्य कर रहा है, या अपने अस्तित्व को बचाने के लिये उन तेज हवाओं से संघर्ष कर रहा है।
हवा के संग पानी
के छींटे उस तक भी आ रहे थे लेकिन उसे परवाह न थी।
वह अभिजीत के
बारे में सोच रही थी... बड़ा अजीब करैक्टर था वह— एकदम बागी, विद्रोही! किसी चीज की परवाह न थी उसे। वह
किसी पुराने उसूल को स्वीकारने का पैरोकार न था बल्कि जमाने के हिसाब से नये नियम
गढ़ने का समर्थक था। उसकी बातें उत्साहित करती थीं, मन में
जोश भर देती थीं लेकिन डराती भी थीं।
कभी वह पड़ोस
में रहता था— आठवीं तक उसके ही स्कूल में रहा था, उससे दो साल बड़ा था। फिर स्कूल बदलने के साथ मोहल्ला भी बदल गया। सुर्खाब
के मन में उसके लिये अलग ही स्थान था लेकिन वह महज आकर्षण था या प्रेम था— यह वह
कभी समझ न पाई थी और न समझ पाई थी कि अभिजीत के मन में उसके लिये क्या था, लेकिन कभी उसने अपनी अनुभूतियों को किसी शब्द-विशेष में बांधने की परवाह
भी न की थी। उसका अभिजीत से बोलना या कभी-कभार मिलना हमेशा से ही एक जैसा था।
वह जब भी किसी
मुसीबत में होती, उसे अभिजीत की जरूरत
महसूस होती। जब भी किसी उधेड़बुन, अंतर्द्वंद में होती,
अभिजीत के सधे हुए शब्द उसे राह सुझाते।
उसे वह वक्त भी
याद था जब उसने अभिजीत के शब्दों से बल पा कर अपने घर में पहली बार अपने हक के
लिये आवाज उठाई थी। एक टिपिकल मुस्लिम घर में पैदा हुई तीन में से एक बेटी थी—
जिनके लिये वही सब नियम थे जो उनके मआशरे की पहचान थे। मजहब यह कहता है, मजहब वह कहता है... हमें ऐसे रहना चाहिये,
हमें वैसे रहना चाहिये। तमाम तरह की पाबंदियां और नियम— यहां तक कि
खिलखिला कर हंसने तक पर पाबंदी थी कि लड़की के लिये यह ठीक नहीं।
लेकिन वहीं वह
अपने दोनों भाइयों को किसी खास नियम का पाबंद न पाती थी— उन्हें हर तरह की छूट थी।
नियम सिर्फ औरतों के लिये तो न थे, लेकिन तोड़ने पर उनके हिस्से हमेशा डांट फटकार और अम्मी की लनतरानियां आती
थीं, जबकि भाइयों को साफ माफ कर दिया जाता था। यह भेदभाव
क्यों? यहां मजहबी रवायतें क्यों बेअसर हो जाती हैं— उसे कभी
समझ न आया। तीन बहनों में सबसे छोटी थी और शायद इसीलिये उनके मुकाबले हठी भी थी और
बागी भी।
बड़ी बहन को
आठवीं तक शिक्षा हासिल करने का मौका मिला था और फिर उसकी शादी हो गई थी, जबकि उस से छोटी वाली को दसवीं तक पढ़ने का
मौका मिला था और कुछ साल बाद उसकी भी शादी करके अपने फर्ज से मुक्ति पा ली गई थी।
यही उसके लिये
तय किया गया था।
● कहानी उस मिशन की, जो कश्मीर भेजे गये एक मास्टरमाइंड को ट्रैक करने और उसे ख़त्म करने का था
लेकिन यह उसे
मंजूर नहीं था— उसके घर खानदान में लड़की की पढ़ाई बस इसी मकसद से कराई जाती थी कि
उसके पास एक स्कूली सर्टिफिकेट आ जाये कि हां, लड़की आठवीं या दसवीं पढ़ी है, ताकि शादी में अड़चन
न आये लेकिन उसने पढ़ाई इस नजरिये से नहीं की थी। उसने पढ़ाई की थी ज्ञान, समझ हासिल करने के लिये, खुद को किसी काबिल बनाने के
लिये, अपने वजूद को निखारने के लिये... उसने पढ़ाई इसलिये की
थी क्योंकि उसे पढ़ाई में दिलचस्पी थी— भले अभी उसने कोई लक्ष्य न निर्धारित किया
हो।
उसने अपना
आक्रोश अभिजीत को सुनाया था और उसी ने उस में चाबी भरी थी कि क्या यह लिमिट उसके
भाइयों के लिये भी है? अगर नहीं तो क्या इस्लाम
इस गैर बराबरी की इजाजत देता है?
और यही मुद्दा
लेकर वह घर में लड़ पड़ी थी, जिसके फलस्वरूप उसे आगे
पढ़ने की इजाजत तो मिल गई थी लेकिन अगले तीन महीनों तक अब्बू ने उससे बात करनी भी
गवारा न की थी और एडमिशन कराने से लेकर कोर्स लेने तक के काम उसे अभिजीत की मदद से
खुद ही करने पड़े थे। यहां तक कि पैसे भी उसे अपने पास से ही खर्च करने पड़े थे।
जैसे-तैसे वक्त
गुजरने के साथ घर का माहौल ठीक हुआ और उसकी पढ़ाई को स्वीकृति मिली लेकिन
इंटरमीडिएट की पढ़ाई पूरी होते ही घर में फिर वही हंगामा खड़ा हो गया। न अब्बू आगे
पढ़ाने को तैयार थे और न ही अम्मी उसका समर्थन करने को राजी थीं, जबकि वह ग्रेजुएशन करने पर बजिद थी।
इस मसले पर
अभिजीत भी शाब्दिक सलाह से इतर उसके लिये और क्या कर सकता था। वह आगे एडमिशन वगैरह
में उसकी मदद कर देता... मगर यह मरहला तो उसे खुद ही तय करना था।
इस बार उसने
खाना पीना ही छोड़ दिया और हफ्ते भर में उसकी हालत क्रिटिकल हो गई तो अंततः उसे
इजाजत तो मिली, लेकिन इस नोटिफिकेशन के
साथ कि उसकी पढ़ाई पर घर की तरफ से एक चवन्नी भी न खर्च की जायेगी। उसे इसकी परवाह
न थी बल्कि पहले ही अंदाजा था तो साल भर से ट्यूशन पढ़ा-पढ़ा कर अपनी पढ़ाई के
लिये खर्च पहले ही जोड़ने लगी थी। उसने फिर अभिजीत की मदद ली और बी कॉम में दाखिला
ले लिया।
लेकिन इस बार
पढ़ाई के साथ सबके लिये वह घर में अवांछित सी हो गई। अब्बू ने फिर बिल्कुल ही
बोलना छोड़ दिया और अम्मी भी बस जरूरत भर ही बोलती थीं। भाई तो वैसे भी उसकी कोई
फिक्र न करते थे।
हालांकि पढ़ाई
के अतिरिक्त वह बाकी सारी मर्यादाओं का पास रखती थी और कालेज सर से पांव तक मुंद
कर ठीक उसी तरह जाती थी जैसे उसके घर वाले चाहते थे।
इस बार सेकंड
ईयर भी आधा गुजर गया, तब जाकर अब्बू का मूड
वापस सही हो पाया और उन्होंने वापस उससे बोलना शुरू किया। अम्मी भी धीरे-धीरे
बोलने लगी थीं और दूसरे साल में जा कर उसकी पढ़ाई को स्वीकृति मिल पाई थी।
खैर जैसे-तैसे
करके पढ़ाई पूरी हो पाई तो पूरी होते ही उसके हिसाब से देखें तो एक नई मुसीबत ने
उसकी जिंदगी में दस्तक दे दी थी।
उसने तो कभी
महसूस नहीं किया था लेकिन उसके मामू का लड़का शायद उसे चाहता था। यह बात उसे अब
पता चली थी जब मामू और मुआनी उसके घर उसके लिये रिश्ता लेकर आये थे। खाते-पीते लोग
थे, मंडी में कपड़े का
कारोबार था और मामू का लड़का कासिम बाप और बाकी भाइयों के साथ उसी कारोबार को
संभालता था। शक्ल सूरत से भी ठीक ही था।
अम्मी-अब्बू ने
खुशी-खुशी हां कर दी।
उसे थोड़ी
हैरानी हुई कि उससे एक बार भी पूछे बिना, उसकी मर्जी जाने बिना कैसे हां कर दी लेकिन फिर उसने खुद से सवाल किया कि
क्या उसकी बहनों का रिश्ता तय करते वक्त उनकी मर्जी पूछी गई थी... क्या उसके मआशरे
में लड़कियों की मर्जी पूछी जाती है?
फिर भी उसने
अम्मी से जिक्र छेड़ा तो जवाब मिला कि कासिम में बुराई क्या है और अब वह ग्रेजुएशन
कर तो चुकी— आगे और पढ़ के करना क्या है? संभालना तो वही चूल्हा चौका और बच्चे ही हैं। अगर वह सोचती है कि वह पढ़
लिख कर नौकरी करेगी तो भूल जाये। इसके लिये न सिर्फ उसे उनसे और उस घर से, बल्कि इस समाज से भी रिश्ता तोड़ना पड़ेगा। फिर नौकरी करनी भी क्यों है...
क्यों पैसे कमाने के लिये मेहनत करनी है। पैसे कमाने के लिये मर्द होते हैं और
कासिम की कमाई काफी है तेरे गुजर बसर के लिये।
एक आम लड़की के
तौर पर उसने सोचा तो अम्मी की बात ठीक ही लगी लेकिन उसके अंदर की विद्रोही सुर्खाब
फिर भी ऊहापोह में थी कि औरत होने का कुल मतलब यही है क्या... चूल्हा चौका, पति बच्चे?
फिर मौका निकाल
कर वह अभिजीत से मिली थी और उसे अपनी कशमकश बताई थी।
वह खुद क्या
चाहती है, अभिजीत ने पूछा था।
लेकिन वह कोई
उत्तर न दे पाई थी— खुद इतनी कन्फ्यूज थी कि समझने में ही असमर्थ थी कि क्या
स्टैंड उसे लेना चाहिये।
"लड़का कैसा है?"
अभिजीत ने उसकी आंखों में झांकते हुए पूछा था।
"देखने में तो ठीक-ठाक
ही है।"
"वह नहीं— मिजाजन कैसा
है? मेरी तरह बगावती तेवर वाला, मॉडर्न
सोच वाला प्रैक्टिकल इंसान या कोई आर्थोडॉक्स मुस्लिम?"
अब उसका सवाल
सुर्खाब के समझ में आया तो जुबान थम गई। अभिजीत को यहां उसके शब्दों की जरूरत नहीं
थी— जवाब उसने सुर्खाब की आंखों में पढ़ लिया था और फिर एक छोटी सी कहानी सुनाई
थी।
एक लड़का था, आम सा रवायती। उसके घर में एक पेड़ था,
जिस पर रोज एक खूबसूरत सी चिड़िया बैठती थी। वह उसे बहुत पसंद थी और
वह तब तक उसे निहारा करता था जब तक वह उड़ न जाती थी। एक दिन उसने सोचा कि क्यों
रोज उसका इंतजार करे और चोरों की तरह छुप-छुप के उसे निहारे, इस डर से कि कहीं वह उसकी आहट से उड़ न जाये। क्यों न वो उसे पकड़ कर अपने
पास रख ले और उसने एक दिन धोखे से उसे पकड़ लिया।
उसके लिये एक
खूबसूरत सा पिंजरा लाया और उस चिड़िया को उसमें बंद कर दिया। वह उसके लिये रोज खाने
पानी का इंतज़ाम करता और उसे वैसे ही देखते रहने की कोशिश करता लेकिन कुछ दिनों
बाद उसने पाया कि उसकी दिलचस्पी उस चिड़िया में घटती जा रही है। दरअसल वह भूल गया
था कि सौंदर्य स्वतंत्रता में है, कैद में नहीं... लेकिन वह भी क्या करता, यह उसका
मिज़ाज था।
आगे और कुछ कहने की जरूरत नहीं थी— उसे उसका जवाब मिल गया था और वह वापस लौट आई थी।
अब खिड़की से
सटी, बाहर होती बारिश और झूमते
हुए पेड़ को देखकर वह यही सोच रही थी कि धूप में झुलसते उस पेड़ को बारिश और हवाओं
के शुरुआती झोंकों ने भले आल्हादित किया हो किंतु अब वह अपने अस्तित्व को बचाये
रखने के लिये संघर्ष कर रहा है। संघर्ष... जो उसे हर अहम मौके पर करना पड़ा है...
संघर्ष, जो उसे अपने नये फैसले के साथ फिर करना पड़ेगा।
उसने फोन
उठाया... व्हाट्सएप खोला और अभिजीत को लिखा—
"लड़के की पसंद और
मर्जी का पता नहीं, लेकिन सुर्खाब को पिंजरे में यूं कैद हो
जाना पसंद न था। वह उड़ना चाहती थी... वह हमेशा की तरह पंख खोलना चाहती थी। वह
पिंजरा तोड़ के उड़ जाना चाहती है लेकिन बाहर कितने भूखे शिकारी बाज ऐसी सुर्खाबों
की ताक में लगे रहते हैं... सुर्खाब का अंजाम क्या होगा?
शायद बिजी रहा
होगा जो मैसेज उसने देखा नहीं... आधे घंटे बाद फिर उसका जवाब आया— मैं हूं ना।
यह तीन शब्द भर
नहीं थे... उसके लिये संबल थे। उसके लिये एक भरोसा थे कि वह कोई ऐसा फैसला लेती है
तो हमेशा की तरह वह उसका साथ देगा। वह उसकी हर मुमकिन मदद करेगा। वह उसे किन्ही
हालात में अकेला न पड़ने देगा।
एक फैसले पर
पहुंच कर उसने अगला मैसेज कर दिया।
कल मंगनी के
लिये कासिम के घर वाले दोपहर दो बजे आ रहे हैं। बाहर सड़क पर बस तीन बजे तक मेरा
इंतजार करना। मैं खुद को आजमाना चाहती हूं।
उधर से "डन" का
रिप्लाई आया और उसने तसल्ली की सांस ली।
और अगले दिन जब
कासिम की अम्मी-अब्बू कुछ और रिश्तेदार, मय साजो सामान के साथ घर हाजिर हुए तो वह बिना तैयार हुए अपने हैंडबैग में
सभी जरूरी डाक्यूमेंट्स रखे नकाब हाथ में लिये, जाकर खड़ी हो
गई थी और सभी हवन्नक से उसे देखने लगे थे।
"तैयार नहीं हुई तुम
बेटा।" मुआनी ने थोड़ी दबी जुबान में कहा।
"क्योंकि मुझे यह शादी
नहीं करनी।" उसने स्थिर स्वर में कहा।
और सभी की आंखें
फट पड़ीं— अब्बू भी वहीं थे, उनका चेहरा एकदम से लाल
पड़ गया। अम्मी ने मुंह पीट लिया— दोनों बहनों ने भी ऐसी ही प्रतिक्रिया दी लेकिन
भाई कौतहूल से उसे देखने लगे थे, जबकि दूसरी तरफ के सभी
लोगों के चेहरे गहरी नाराज़गी से सराबोर हो गये थे।
"क्या— क्यों?"
अब्बू दहाड़े।
"बस नहीं करनी शादी।"
उसने बिना उनसे आंखें मिलाये पूरी दृढ़ता से कहा।
"आखिर क्या कमी है
मेरे कासिम में?" मुआनी ने अप्रिय स्वर में कहा।
"कोई नहीं— मैं शादी
से इंकार इसलिये नहीं कर रही कि कासिम में कमी है, बल्कि
इसलिये कर रही हूं कि हमारे मआशरे में ही कमी है। यहां औरत की हैसियत ही क्या है?
उसका कुल वजूद चूल्हा-चौका, पति की सेवा और
बच्चे संभालना ही तो है। ज़िंदगी इससे बढ़कर भी बहुत कुछ है मुआनी।"
"कहना क्या चाहती है
लड़की?" अब्बू ने गरजते हुए कहा।
"मुझे कभी समझ न आया
था कि मेरा नाम सुर्खाब क्यों रखा गया लेकिन आज सोचती हूं तो लगता है कि मेरे लिये
यह नाम बिल्कुल ठीक था। सुर्खाब खुले आसमान में उड़ने के लिये होती है... उसकी
खूबसूरती उसकी आजादी में है— किसी सोने के पिंजरे में कैद होकर नहीं। आप जहां मुझे
भेजना चाहते हैं वहां शायद खाने-पहनने को सब मिले लेकिन आजादी—"
फिर उसने उंगली
उठाकर अम्मी की तरफ इशारा किया।
"—इतनी ही मिलेगी। कभी
ग़ौर किया है आपने कि इन्हें कितनी आजादी मिली? कभी अपने घर
रही होंगी तो इसी तरह बंदिशों पाबंदियों में। पढ़ने की मां बाप से 'छूट' भी मिली होगी तो बस आठवीं तक— पढ़ने की आजादी
नहीं। इस घर में आईं तो हर क़दम पर आपकी मर्जी से चलीं। आपकी मर्जी से यह इतने
बच्चे पैदा किये— आपकी मर्जी से कपड़े पहनती हैं, खाती पीती
हैं, घर से निकलती हैं। बच्चे पढ़ना चाहते हैं तो भी यह आपकी
मर्जी के साथ जाती हैं न कि बच्चियों के साथ उनके हक के लिये खड़ी होती हैं। कभी
ग़ौर किया है आपने कि आपकी मौजूदगी में यह खुल कर हंस भी नहीं सकतीं। क्या इनका
दिल न चाहता होगा अपनी मर्जी से पढ़ने का, बच्चे पैदा करने
का, खाने पहनने या खुशगवार मौसम में सड़क पर निकलने का,
खुलकर हंसने का, अपनी पसंद-नापसंद के हिसाब से
लोगों से बोलने का, अपने बच्चों के हक के लिये लड़ने का...
है इन्हें आजादी? इन्हें बस एक कठपुतली की तरह नाचना है
जिसके धागे मायके में इनके अम्मी-अब्बू खींचते रहे और ससुराल में आप। क्या इसे आप
आजादी कहते हैं?"
उसके शब्दों की
चोट मां को अंदर तक कहीं भेद गई थी... क्षण भर पहले चढ़ा गुस्सा पल में पिघल गया
और रुलाई रोकने की कोशिश में चेहरा बनने बिगड़ने लगा था।
"एक इंसान की ज़िंदगी
में शादी सबसे बड़ा फैसला होती है और वहां भी भेदभाव देखिये कि कासिम लड़के हैं तो
खुद से कह के रिश्ता भिजवा दिये कि उन्हें मैं पसंद हूं और यहां शादी के लिये हां
करने से पहले मेरी मर्जी तक पूछने की जरूरत न समझी गई... आप इसे आजादी कहते हैं?"
"हमारे खानदान का यही
रिवाज है।" अब्बू पर जैसे उसकी बातों ने कोई असर न किया
था।
"जो मुझे मंजूर
नहीं... मैं अपने नाम की पहचान के साथ जियूंगी।"
"इसके लिये तुम्हें हम
सब से हमेशा के लिये रिश्ता तोड़ना पड़ेगा।" इस बार
अब्बू के लहजे में बेबसी, तिलमिलाहट और झुंझलाहट बसी हुई थी।
"खून के रिश्ते जुबानी
एतबार से नहीं टूटते अब्बू, यह कोशिश आप पहले भी कर चुके
हैं। हां, घर से टूट जायेगा शायद... यह मैं जानती हूं और मैं
इसके लिये तैयार हूं।" कहकर उसने क़दम बाहर की तरफ बढ़ा
दिये।
"रुक जा पगली।"
कहते हुए अम्मी की आवाज रूंध गई।
"किसके भरोसे? आप भूल रही हैं अम्मी... इस घर में आपकी मर्जी आज भी नहीं चलती।"
वह रुकी जरूर लेकिन बिना उनकी ओर देखे बोली।
अम्मी ने कातर
भाव से अब्बू की तरफ देखा लेकिन उन्होंने बेरुखी से मुंह फेर लिया।
उसने नकाब पहना
और घर की चौखट लांघ गई। उसकी पीठ पर टिकी निगाहों में क्या भाव रहे होंगे, वह समझ सकती थी लेकिन मुड़कर देखना नहीं
चाहती थी।
कुछ गलियों से
गुज़र कर वह मेन गली में आ गई जो बाहर सड़क पर खुलती थी। वहां सड़क के पार बाइक के
साथ खड़ा अभिजीत दिख रहा था— ठीक सामने।
उसकी चाल तेज हो
गई।
लेकिन दीवार से
सटे एक हत्थू ठेले की शायद किसी उभरी हुई कील या पतरे में उसका हवा के झोंके के
साथ लहराया नकाब फंस गया और उसके चर्रर्र से फटने की आवाज के साथ उसके कदम ठिठक
गये। उसने पलट कर देखा तो हत्थू ठेला उसका नकाब थामे था... क्या वह उसे रोक रहा था?
लेकिन पिंजरे को
पीछे छोड़ चुकी सुर्खाब के पंख अब कब थमने वाले थे। उसने बेलौस मुस्कुराहट के साथ
नकाब शरीर से अलग करके वही डाल दिया और पूरे आत्मविश्वास के साथ चलती हुई अभिजीत
तक पहुंच गई, जो आंखों में प्रशंसा के
भाव लिये मंत्रमुग्ध सा उसे देख रहा था।
"क्या देख रहे हो?"
उसने झेंपते हुए पूछा।
"तुम ने कर दिखाया।
मैं एक बाग़ी हूं और मुझे बग़ावत पसंद है। अपनी जिंदगी के लिये मुझे ऐसी ही बागी
लड़की चाहिये थी। अब मैं फाइनली तुमसे कह सकता हूं जो मैं हमेशा तुमसे कहना चाहता
था... मुझसे शादी करोगी?"
सुर्खाब ने
हैरानी से उसे देखा।
वह मुस्कुराते
हुए बस उसे देख रहा था।
(मेरी किताब गिद्धभोज से ली हुई एक कहानी)








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