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आकर्षण

 


सुहाग की सेज पर वह सिकुड़ी सिमटी बैठी थी और आसपास बिखरी गुलाब की पंखुड़ियों की खुश्बू अपनी साँसों में भर रही थी कि नदीम उसके पास आ बैठे और उसकी साँसें बेतरतीब हो गयी थीं।

उसकी शर्म से झुकी पलकों का बोझ जैसे कुछ और बढ़ गया था और वह अपनी ही देह में जैसे कुछ और सिमट गयी थी।

कुछ देर वह ख़ामोशी ने बैठे उसे देखते रहे थे... जैसे आगे बोलने वाले शब्दों का चयन न कर पा रहे हों... फिर उसकी ठोड़ी के नीचे अपनी उंगलियाँ टिका कर उसका चेहरा ऊपर उठाया था लेकिन पलकें उठाने की हिम्मत वह अभी भी न कर पायी थी।

"मेरी तरफ देखो अदीबा।" उन्होंने जैसे आग्रह किया था।

और उसने पलकें उठायीं थीं और उस चेहरे को देखा था... जिसे दिन रात अपने हर तसव्वुर, अपने हर ख्याल में देखती आई थी।

वे पुरख़ुलूस निगाहें जैसे उसकी निगाहों से हो कर उसकी रूह में उतर रही थीं और उसकी रीढ़ की हड्डी में एक सिहरन भरी गुदगुदाहट पैदा कर रही थीं।

और वह मुस्कराते हुए होंठ... जो पूछ रहे थे...

"तुम खुश तो हो न?"

खुश... उसके ज़हन को झटका सा लगा। क्या उसके पास वह अलफ़ाज़ थे जो उसकी ख़ुशी को बयान कर सकते? क्या नदीम उसकी आँखों से, उसके चेहरे से उसकी ख़ुशी को पढ़ सकने में असक्षम थे?




कैसे बताये वह उन्हें कि हसरतों से भरे एक बच्चे को चाँद मिल गया था... एक जन्म जन्मान्तर के प्यासे को कुआँ मिल गया था... एक मरते हुए जिस्म को ज़िंदगी मिल गयी थी। क्या इन अहसास को जता पाने वाले शब्द मौजूद थे? क्या इन जज़्बात को शब्दों से उकेरा जा सकता था?

वह गुंग हो कर रह गयी।

उसके सारे शब्द दो आंसुओं की शक्ल में उसकी आँखों में वजूद पाये और आँखों की कोरों की सीमा तोड़ कर उसके गाल पर ढुलक आये और लब बस काँप कर रह गये।

नदीम ने उसे अपनी बाहों में भर लिया और वह यूँ उनके आगोश में सिमट गयी जैसे किसी मुसाफिर को उसकी मंजिल मिल गयी हो और वह उसी आगोश में अपनी मौत तक पुरसुकून नींद सो जाना चाहता हो।

तभी दरवाज़े पर दस्तक हुई।

नदीम का वजूद जैसे इस दस्तक से धुंआ हो गया। वह हाथ बढ़ा कर उसे पकड़ लेने की नाकाम कोशिश करती रह गयी। खुद उसका रूप बदल गया... वह दुल्हन का लिबास, वह सुहाग की सेज, जैसे सब उसके हाथ से छूट गये और उसका ज़हन जैसे किसी अँधेरे से निकल कर रोशनी में आ गया।

आह... आरामकुर्सी पर बैठे-बैठे एक पल में कितना हसीन सपना देख डाला उसने।

उसने अपने नम गाल छुए... शायद सबकुछ सपना था लेकिन वह आंसू हकीकत थे... उसने सर झटकते आवाज़ पर ध्यान दिया। बाहर कोई दरवाज़ा खटखटाता उसका नाम ले रहा था।

"अदीबा बिटिया।"


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उसने दरवाज़ा खोला, सामने घर में काम करने वाली मेहरून बाजी खड़ी थीं, जो उसे खाने के लिये बुलाने आई थीं। उन्हेंआती हूँकह कर रुखसत किया और खुद वापस आ कर आदमकद आईने के सामने खड़े हो कर खुद को देखने लगी।

क्या ख़ास था उसमे... कुछ भी तो नहीं। साधारण शक्ल-सूरत, पांच फुट के आसपास की हाईट, सांवली रंगत और साधारण सा ही जिस्म। कोई एक्स्ट्रा कर्व नहीं, कोई आकर्षक फिगर नहीं... एकदम आम सी लड़की, जैसी लाखों होती हैं— या शायद करोड़ों।

फिर उसने मोबाइल उठाया और गैलरी में जाकर नदीम का फोटो देखने लगी... छः फुट से निकलती हाईट, कसरती शरीर, गोरी रंगत और बेहद आकर्षक चेहरा। उनमें हर वो खूबी थी जो किसी भी लड़की को पसंद होती है, वह ठीक वैसे ही थे कि जिसे कोई भी लड़की अपने ख्वाबों का शहजादा तस्लीम कर सकती थी।

उसने शीशे के सामने मोबाइल करके नदीम के साथ खुद की जोड़ी की कल्पना की। एकदम वाहियात... उलटी गंगा बहना कब किसे पसंद? लड़का साधारण हो और लड़की खूबसूरत हो तो आराम से हज़म हो जायेगा लेकिन लड़की एकदम साधारण सांवली सी और लड़का किसी फ़िल्मी हीरो जैसा खूबसूरत हो... तो देखने वाली निगाहें कभी हज़म नहीं कर पातीं।

कलर बायसनेस... यह एक कड़वी सच्चाई है ज़माने की। एक लड़के के लिये भले इसकी कोई खास अहमियत न होती हो लेकिन एक लड़की के लिये सांवला होना क्या होता था, यह उससे बेहतर कौन बता सकता था जिसने इस अहसासे कमतरी को बचपन से जिया था। उसे बड़े होने तक अपना दोष समझ न आया था कि क्यों उसे इस तरह का बर्ताव झेलना पड़ता है। एक सांवली लड़की कितने मौकों पर अपनी ख़्वाहिशों के साथ समझौते करती है... कितनी जगहों पर उसे उपेक्षा का शिकार होना पड़ता है... कितनी ही बार उसे टोका जाता है और अहसास कराया जाता है कि वह गोरी नहीं है— और समझदार होते-होते अंततः वह मन को मारना सीख ही लेती है। हालांकि उसने कभी इस भाव को जाहिर नहीं होने दिया और दूसरों के सामने खुद को पूरे आत्मविश्वास के साथ पेश किया लेकिन तन्हाई में तो यह कमी उसे सालती ही थी।


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एक गहरी मायूसी से भर कर उसने हाथ नीचे कर लिया।

लेकिन इस कमबख्त दिल का क्या करे... यह कब दुनियाबी चीज़ें देखता है। जो निगाहों में बस गया सो बस गया... अब पसंद या चाहत पे कोई ज़ोर अख्तियार कहाँ।

अपनी पढ़ाई कम्प्लीट करके जब नदीम नौकरी तलाश रहे थे तो उन्होंने ट्यूशन पढ़ाना शुरू किया था और उसी दौरान उसके वालिद ने उन्हें अपने घर ट्यूशन के लिये नियुक्त किया था अदीबा के लिये।

नदीम से पढ़ते-पढ़ते कब वह उसे अच्छे लगने लगे और कब उसके दिल की गहराइयों में जा बसे, उसे अहसास ही न हुआ और साल भर बाद जब फाइनल एग्जाम के बाद अब ट्यूशन बंद हो गयी थी तो वह यह रियलाइज़ कर पायी थी कि नदीम उसके लिये क्या थे।

हालांकि नदीम की नौकरी इस बीच लग गयी थी लेकिन फिर भी शाम के फ्री वक़्त में उन्होंने उसे पढ़ाना जारी रखा था और एक बात यह भी थी कि पढ़ाने के सिवा उन्होंने कभी भी उसमें कोई अतिरिक्त रूचि नहीं दिखाई थी, जिससे कुछ कहना तो दूर— उसकी उन्हें सामने से जी भर के देखने तक की हिम्मत नहीं पड़ पायी थी।

अब उसने उड़ती-उड़ती खबर सुनी थी कि उनकी शादी लग रही थी कहीं... और इसी चीज़ ने उसकी बेचैनी बढ़ा दी थी।

कल उन्होंने उसे अपने घर बुलाया था पहली बार... पता नहीं क्यों। उसने पूछा भी था लेकिन उन्होंने यही कहा था कि घर आने पे बतायेंगे।

हालांकि उसने कभी उनके सामने अपनी चाहत नहीं ज़ाहिर की थी... न ही कभी कोई भी ऐसी हरकत की थी जिससे उसके जज़्बात ज़ाहिर हो सकते, लेकिन क्या पता कि उन्होंने महसूस कर लिया हो। इश्क तो महसूस हो ही जाता है... खवाहिशें कहाँ छुपाये छुपती हैं।

शायद समझाने के लिये बुलाया हो... उनके मिजाज़ के हिसाब से यह वजह ज्यादा सूट करती थी।




वह रात उसकी करवटें बदलते गुजरी थी। क्या कहेंगे... कैसे कहेंगे और कैसे रियेक्ट करेगी वह। क्या महसूस होगा उसे... वह इनकार कर देना चाहती थी। नहीं जाना चाहती थी कि उसमे हिम्मत नहीं थी अपनी नाकामी को शब्दों में सुन पाने की।

लेकिन अब उसके पेपर हो चुके थे और आगे वह पढ़ना भी चाहती तो नदीम का कोई इरादा भी नहीं था अब ट्यूशन पढ़ाने का... और न ही कोई उनका समान सर्कल या रिश्तेदारी थी कि नदीम को देख पाने की उम्मीदें बनी रहतीं। आखिरी पेपर हुए दस दिन गुज़र चुके थे और तब से तो उसने देखा नहीं था उन्हें, तो आगे क्या पता जिंदगी में कब दिखते।

एक बार और नदीम को देख लेने की ललक उसे नदीम के घर जाने पे मजबूर कर रही थी और इसके लिये वह उन ज़िल्लतआमेज़ लम्हों को बर्दाश्त करने के लिये तैयार थी, जिनमें उसे उसकी चाहत की शिकस्त का सामना करना था।

अगले दिन नियत समय पर वह अपनी हमेशा की सादगी भरी शैली में तैयार हुई और नदीम के घर के लिये निकल पड़ी।

उसे यह देख कर कोई ख़ास हैरानी नहीं हुई कि नदीम घर में अकेले ही थे। वैसे भी उनके परिवार में माँ-बाप के सिवा एक भाई थे जो सपरिवार नोएडा में रहते थे, एक बहन थी जिसकी शादी हो चुकी थी और दिन के इस वक़्त घर में बस माँ के ही होने की सम्भावना थी, जो इत्तेफाक से नहीं थीं।

नदीम ने उसे बड़े प्यार से बैठक में बिठाया। पीने को जूस का गिलास दिया और उसके सामने ही बैठ कर उसे देखने लगे।

"मैंने तुम्हें इस लिये बुलाया है कि मेरे लिये जिंदगी के सबसे अहम फैसले का वक़्त आ गया है और मैं नहीं चाहता कि मैं कभी न कह पाने की वजह से जिंदगी भर अफ़सोस करूँ।"

वह कुछ बोली नहीं, बस सवालिया निगाहों से उन्हें देख के रह गयी।



उन्होंने अपने फोन पे एक तस्वीर निकाली और उसके सामने कर दी। उसने फोटो देखी... किसी बेहद खूबसूरत और गोरी-चिट्टी लड़की की फोटो थी। उसके दिल में एक हूक सी उठ कर रह गयी।

"यह आलिया है... डॉक्टर है, ब्यूटी विद ब्रेन का परफेक्ट कॉम्बिनेशन है, घर वालों के हिसाब से। इलाहाबाद से इंटर्नशिप कर रही है। तुम तो जानती ही हो कि हम मुस्लिम्स में सरकारी नौकरी गाहे बगाहे ही किसी को मिलती है और जब से मैं इस नौकरी में गया हूँ... आये दिन कोई न कोई अम्मी या अब्बू तक किसी न किसी का रिश्ता लेकर पहुँचता ही रहता है।"

वह इस बात को जानती थी, समझती थी लेकिन फिर भी नदीम के मुंह से सुन कर उसे अजीब लग रहा था, जैसे यह उसकी अना पर चोट मारी जा रही हो। वह पैर के अंगूठे से फर्श को कुरेदने की नाकाम कोशिश करती, निगाहें नीचे किये ख़ामोशी से सुनती रही।

"अब इसका रिश्ता आया है और अम्मी-अब्बू दोनों को यह पसंद आ गयी है और इसी संडे वह इलाहबाद उसके साथ रिश्ता पक्का करने जाने वाले हैं। अभी तक रिश्ते आते थे तो मुझे फर्क नहीं पड़ता था लेकिन अब बात रिश्ता होने तक आ गयी है तो मैं शायद अब और इगनोर करने की हालत में नहीं रह गया।"

उसके पास बोलने के लिये कुछ नहीं था।

"वह फोटो देखो।" नदीम ने एक तरफ इशारा करते हुए कहा।

उसने निगाह उधर घुमाई... शायद उनके अम्मी-अब्बू की फोटो थी, जिन्हें उसने सामने से पहले कभी नहीं देखा था। अब्बू एकदम साधारण से थे जबकि अम्मी बेहद खूबसूरत।

"देख सकती हो कि अब्बू कैसे एकदम आर्डिनरी पर्सन हैं जिनमे कोई एक्स्ट्रा आर्डिनरी बात नहीं, सिवा इसके कि उनकी रेलवे में सरकारी नौकरी लग गयी थी और अम्मी को देख लो... कैसी हुस्न की मलिका लगती हैं। कोई जोड़ है इनमे? नहीं... लेकिन फिर भी शादी तो हुई न और पिछले अड़तीस सालों से चल भी रही है।

लेकिन कैसे... यह हम उनके बच्चे जानते हैं। यह मैं जानता हूँ... अम्मी ने उन्हें कैसे स्वीकार किया होगा, अम्मी जानें लेकिन बर्ताव में हमने कभी उन्हें हमारे वालिद की इज्ज़त करते नहीं देखा। हमेशा दबे, डरे, बीवी के हुस्न से दहशतज़दा और फर्माबरदार। पूरे खानदान में जोरू के गुलाम कहे जाते लेकिन न कभी उन्हें शर्म आई और न कभी अम्मी इस पर शर्मिंदा हुईं।

माँ-बाप तो सभी को प्यारे ही होते हैं... कम से कम अपनी शादी तक, और इसीलिये कभी मैं अम्मी के गुरूर और अब्बू के साथ उनके तौहीनआमेज़ बर्ताव का विरोध भले न कर पाया लेकिन अपने दिल में हमेशा ग़लत ही माना। मैं नहीं कहता कि सभी खूबसूरत लड़कियां मिजाज़ में बुरी होती हैं लेकिन इसे बुरा इत्तेफाक समझो कि अब तक मेरा सामना जितनी भी खूबसूरत लड़कियों से हुआ, मैंने उन्हें मगरूर ही पाया।

वे अटेंशन सीकर होती हैं, अक्सर दूसरों को तुच्छ ही समझती हैं... उनमे दूसरों के लिये सम्मान का वह भाव नहीं रहता जो एक इंसान के तौर पर सबमें रहना चाहिये। बचपन से मैंने इस चीज़ को फेस किया है और यही वजह है कि खुद का रंगरूप इतना बेहतर होने के बावजूद भी मैंने कभी अपने में वह मगरूरियत नहीं आने दी कि मैं दूसरे तमाम लोगों से अच्छा हूँ, बेहतर हूँ और सबका ध्यान मुझ पर होना चाहिये।

और ऐसे में मैंने तुम्हें देखा, जाना... मुझे यह तो नहीं लगा कभी, कि तुम खुद के रंगरूप को लेकर किसी तरह के काम्प्लेक्स का शिकार हो, बल्कि तुममें बिल्कुल उसी आत्मविश्वास की झलक साफ़ तौर पर दिखाई देती है, जो किसी में भी होना चाहिये। अपना रंगरूप हम खुद नहीं डिसाइड करते, यह हमे बाई नेचर, बाई गॉड मिलता है... फिर इस पर हमें गुरूर या शर्मिंदगी क्यों हो?

तुममें दूसरों के लिये वही सम्मान है, जो मुझे अपनी माँ में कभी नहीं दिखा। तुममें वही सुघड़ता है जो एक औरत में होनी चाहिये और तुम्हें हमेशा अपनी हर ज़िम्मेदारी को उसी अंदाज़ निभाते में देखा है जैसे एक मज़बूत औरत को निभानी चाहिये। तुममे ज़ाहिरी खूबसूरती भले न हो लेकिन वह ख़ूबसूरती है जो वह अट्रेक्शन पैदा करती है जो रूह को छू ले।




जो मुझे अपने घर में नहीं दिखा, जो अपने आसपास नहीं दिखा... वह सब मुझे तुममें दिखा और अब जब वह वक़्त आ गया है जहाँ मुझे यह फैसला लेना ही है... मैं यह गारंटी से कह सकता हूँ कि मेरे लिये कोई आलिया परफेक्ट नहीं हो सकती। मेरे लिये तो तुम परफेक्ट हो।"

उसने बेयकीनी से निगाहें उठा कर बड़ी हैरानी से नदीम की आँखों में देखा... अब उनमे गहरी मुहब्बत तैर रही थी।

"शादी करोगी मुझसे?"

और उसके सब्र का बांध टूट गया। आँखें बेसाख्ता बह चलीं और वह फफक कर रो पड़ी।

नदीम को एकदम समझ में नहीं आया कि उसे क्या हो गया... वह अब ताज्जुब से उसे देख रहे थे और वह ज़ारोकतार बस रोये जा रही थी।  


(मेरी किताब गिद्धभोज से ली हुई एक कहानी)


Written by Ashfaq Ahmad

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